कैप्टन की छुट्टी से पंजाब में कांग्रेस की चुनौती बढ़ गयी है

श्रेय शुक्ला स्वतंत्र पत्रकार 

विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब में कांग्रेस ने चन्नी की आशा में कैप्टन को वनवास दे कर जो दांव खेला है वह उल्टा भी पड़ सकता है। कहावत है कि नासमझ पांव पर कुल्हाड़ी मारते हैं परन्तु कांग्रेस ने तो कुल्हाड़ी पर ही पांव मार दिया है। कैप्टन के नेतृत्व के चलते 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए पंजाब कांग्रेस जहां बढ़त की स्थिति में दिख रही थी, वहीं इस बदलाव के बाद आज वो अन्य दलों के समकक्ष कमजोर दिखाई देने लगी है। पंजाब में चुनावों के लिए ताल ठोक रहे अकाली दल बादल के पास सुखबीर सिंह बादल के बावजूद कैप्टन के कामने कोई नेता नहीं था। आम आदमी पार्टी के पास भी चेहरे का अभाव था। भाजपा भी अकालियों से अलग होने के बाद मजबूत और कद्दावर चेहरे के साथ पंजाब में मजबूती के लिए हाथ पैर मार रही है। इस सबके बीच कैप्टन को ही दरकिनार कर कांग्रेस ने राजनीति की कौन सी बिसात बिछायी है ये वक्त के गर्भ में है।
पंजाब की राजनीति शुरू से ही कांग्रेस और अकाली दल के बीच दो ध्रुवीय रही है। कहने को यहां भाजपा, बसपा, आम आदमी पार्टी व कई स्थानीय दल हैं लेकिन ये कुछ खास असर नहीं डाल पाए। इनका अस्तित्व गाहे बगाहे गठजोड़ पर ही निर्भर रहा है। पिछले कुछ चुनावों को लेकेर पंजाब की सियासत पर नजर डालें तो 1997 के विधानसभा चुनावों के बाद से कांग्रेस में राजिन्द्र कौर भट्ठल युग की समाप्ति के बाद एक तरफ अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल और दूसरी ओर कैप्टन अमरिन्दर सिंह स्थापित हो गए। पिछले ढ़ाई दशकों से प्रदेश की राजनीति दो दलों की बजाय इन दोनों नेताओं के इर्द-गिर्द सिमटती अधिक नजर आने लगी थी। अकाली दल से आने के बावजूद कैप्टन ने अपनी आक्रामक शैली से ऐसी छवि बनाई कि वे प्रकाश सिंह बादल का विकल्प बने और 2002 में कांग्रेस की सरकार गठित करने में सफल रहे। इसके बाद 2007 और 2012 में प्रकाश सिंह बादल और 2017 में फिर से कैप्टन सत्ता में आए। लेकिन इस दौरान प्रकाश सिंह बादल की बढ़ती उम्र ने प्रदेश की राजनीति का दूसरा ध्रुव लगभग खत्म कर दिया।
पंजाब में दो ध्रुवीय राजनीति को तोड़ना इतना मुश्किल था कि 2017 के विधानसभा चुनावों में दिल्ली की सनसनी बन कर उभरी आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल हर तरह के छल-बल और लटकों-झटकों का प्रयोग करने के बाद भी पंजाब की राजनीतिक सीढ़ियों से फिसल कर औंधे मुंह गिरे।
इस बार पूर्व मुख्यमन्त्री अमरिन्दर सिंह के नेतृत्व वाली साढ़े चार साल पुरानी सरकार पर चुनावी वायदे न निभाने के आरोप लगने लगे थे और विपक्ष कांग्रेस सरकार को घेरने लगा था, परन्तु इसके बावजूद भी समूचे विपक्ष के पास कैप्टन के समकक्ष कद्दावर नेता नहीं था। इस बात को यूं भी कहा जा सकता है कि पंजाब में कैप्टन की कुछ-कुछ स्थिति केन्द्र की राजनीति के नरेन्द्र मोदी जैसी बन गई थी। प्रदेश की राजनीति पूरी तरह एक ध्रुवीय चली आ रही थी जो कांग्रेस के लिए अत्यन्त लाभकारी थी, परन्तु पार्टी ने कैप्टन की छुट्टी कर शायद खुद ही मुसीबत मोल ले ली है।
इस फैसले से पहले कांग्रेस नेतृत्व को गौर करना चाहिए था। कैप्टन का नेतृत्व और उनकी आक्रामक शैली पंजाब की प्रकृति से मेल खाती है जिसके चलते लोग उन पर विश्वास करते थे। जाट समुदाय से आने के बावजूद सर्व समाज का उन पर विश्वास था। उनकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि संघ परिवार और भाजपा का काडर भी उन्हें पसन्द करता रहा है। पंजाब में उनका राजनीतिक अस्तित्व पार्टी के खास परिवार या केन्द्रीय नेतृत्व पर निर्भर नहीं था, यही कारण रहा कि 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ‘चाहूंदा है पंजाब-कैप्टन दी सरकार’ के नारे के चलते दो तिहाई बहुमत से सत्ता में लौटी थी। कैप्टन कभी भी दूसरे कांग्रेसी नेताओं की तरह भेड़चाल में शामिल नहीं हुए और यही गुण शायद उनकी कमजोरी बन गया, क्योंकि पार्टी का खास कुनबा अपनी वंशबेल बड़ी रखने के लिए खुद के ही कद्दावर नेताओं के राजनीतिक घुटने छांगने में अधिक विश्वास करता है।
पंजाब कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन घटनाक्रम ने प्रदेश की राजनीति में जातीयता की दरारों को और गहरा दिया, साथ में मजेदार बात है कि इसे कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक भी कहा जा रहा है। चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित मुख्यमन्त्री बता कर प्रदेश के 32 प्रतिशत इस वर्ग के मतदाताओं को साधने का दावा किया गया है परन्तु विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू को चेहरा बताया जा रहा है जो जाट सिख हैं। सिद्धू को अपनी शर्तों पर फैसले करवाने की आदत है, चुनावों में उन्हें पार्टी आलाकमान नाराज नहीं कर पाएगा। पार्टी यदि सिद्धू के चेहरे को मुख्यमन्त्री के रूप में आगे करती है तो न सिर्फ दलित समुदाय की नाराजगी मोल लेनी होगी, बल्कि एक दलित मुख्यमन्त्री को गैर दलित चेहरे से ‘दलित विरोधी’ छवि का भी सामना करना होगा। अगर ऐसा होता है तो बहुजन समाज पार्टी जो कभी पंजाब में बड़ी तेजी से उभरी थी और आज रसातल में पहुंच चुकी है उसे जरूर फायदा होगा और कांग्रेस नुकसान में रहेगी। हालांकि बसपा हर बार दलित चेहरे को ही मुख्यमन्त्री के रूप में पेश करती आई है परन्तु दलितों ने उसे कभी गम्भीरता से नहीं लिया। पंजाब का दलित मतदाता कांग्रेस, अकाली दल, वामदलों, भाजपा व आम आदमी पार्टी में बिखरा हुआ है, चन्नी के चलते यकायक कांग्रेस के पक्ष में यह सभी एकमुश्त एकजुट हो जायें ये तो बहुत बड़ा चमत्कार ही होगा।

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